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अर्थात्: बजट के जरिए मोदी सरकार के पास सुधार का मौका

चुनावों में बीजेपी का खारिज होना उतना चिंताजनक नहीं है जितना यह साबित होना कि मोदी सरकार धीरे-धीरे सरकारी नियंत्रण वाली गवर्नेंस की तरफ खिसक रही है.

अपडेटेड 15 जनवरी , 2016
जब मौजूदा स्टील उद्योग मांग में कमी से परेशान हो और मदद मांग रहा हो तो केंद्र सरकार राज्यों के साथ नई स्टील कंपनियां क्यों बनाने जा रही है? छोटे उद्यमियों को कर्ज देने के लिए नए सरकारी बैंक (मुद्रा बैंक) की क्या जरूरत है जबकि कई सरकारी वित्तीय संस्थाएं यही काम कर रही हैं? गंगा सफाई के लिए सरकारी कंपनी बनाने की जरूरत क्यों है जबकि विभिन्न एजेंसियां व प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड इसी का कमा-खा रहे हैं? व्यावसायिक शिक्षा और रोजगार निजी क्षेत्र से मिलने हैं तो स्किल डेवलपमेंट के लिए अधिकारियों का नया काडर बनाने की क्या जरूरत है? सरकारी स्कीमों की भव्य विफलताओं के बाद मिशन और स्कीमों की गवर्नेंस हमें कहां तक ले जाएंगी? क्या अब भी वह वक्त नहीं आया है कि रेलवे, कोयला, बैंकिंग जैसे क्षेत्रों में सरकारी एकाधिकार खत्म किया जाए और सरकारी कंपनियों व बैंकों का निजीकरण किया जाए?

फरवरी की 13 तारीख को जब मुंबई में मेक इन इंडिया के पहले सालाना जलसे में दुनिया भर की कंपनियां (60 देशों से 1,000 कंपनियों के आने की संभावना) जुटेंगी तो उनके दिमाग में ऐसे सवाल गूंज रहे होंगे. दरअसल, निवेशकों का सबसे बड़ा मलाल यह नहीं है कि बीजेपी बिहार-दिल्ली हार गई है बल्कि यह आशंका साबित होना है कि धीरे-धीरे सरकारी नियंत्रण वाली गवर्नेंस लौट रही, जो बीजेपी के साथ सुधारवादी मुक्त अर्थव्यवस्था की वापसी की उम्मीदों के विपरीत है. 

राजनीति में दक्षिणपंथ, वामपंथ, समाजवाद, सेकुलरवाद, जातिवाद, राष्ट्रवाद की चाहे जो छौंक लगाई जाए लेकिन आम लोगों ने तजुर्बों के आधार पर सरकारों को सुधारक मानने के अपने पैमाने तय किए हैं. दिलचस्प यह है कि निवेशक और उद्यमी भी इन्हीं  पैमानों से इत्तेफाक रखते हैं जो कि देश के अधिकांश लोगों ने तय किए हैं. तेज आर्थिक सुधार, आय में बढ़ोतरी और रोजगार देने वाली सरकारें न केवल लोगों की चहेती रही हैं बल्कि निवेशकों ने भी इन्हें सिर आंखों पर बिठाया. यही वजह है कि मोदी का भव्य जनादेश तेज ग्रोथ, मुक्त बाजार और रोजगार देने वाली सरकार के लिए था. 

आर्थिक सुधारों की दमकती सफलता ने यह सुनिश्चित किया है कि मुक्त बाजार और निजी उद्यमिता के प्रबल पैरोकार को भारत में सुधारक राजनेता माना जाएगा. मोदी से मुक्त बाजार का चैंपियन बनने की उम्मीदें इसलिए हैं, क्योंकि वे खुले बाजार के करीब हैं और मोदी गुजराती उद्यमिता के अतीत से प्रभावित रहे हैं. कांग्रेस ने इक्लूसिव ग्रोथ की जिद में उदारीकरण पर जो बंदिशें थोप दी थीं, मोदी उन्हें खत्म करने वाले मसीहा के तौर पर उभरे थे. 

अलबत्ता, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले 18 माह में ऐसे दस फैसले भी नहीं किए जो सैद्धांतिक या व्यावहारिक तौर पर उनकी सरकार को साहसी सुधारक या मुक्त बाजार की पैरोकार साबित करते हों. दूसरी तरफ ऐसे फैसलों की फेहरिस्त लंबी है जो मोदी सरकार को बंद बाजार, संरक्षणवाद की हिमायती यानी वामपंथी आर्थिक दर्शन के करीब खड़ा दिखाती है. 

मोदी सरकार ने पिछले 18 माह में आधा दर्जन नई सरकारी कंपनियों की बुनियाद रखी है. दूसरी तरफ बैंकिंग, एयर इंडिया, रेलवे और कोल इंडिया के विनिवेश या खुदरा कारोबार में विदेशी निवेश पर पसीना आ गया है और विश्व के देशों से मुक्त व्यापार समझौतों पर स्वदेशी हावी हो गया है. 

मोदी से उदारीकरण का मसीहा बनने की उम्मीदें नाहक नहीं थीं. पिछले दो दशक के आंकड़े और अनुभव, दोनों ही यह साबित करते हैं कि सरकार ने नहीं, बाजार ने भारत का उद्धार किया है. 1991 में सुधारों के बाद से अगले एक दशक में भारत में अतिनिर्धनता करीब दस फीसद कम हुई, जिसमें बड़ा योगदान लोगों की आय बढऩे का है जो निजी क्षेत्र से आए रोजगारों के कारण बढ़ी है. 

आर्थिक उदारीकरण की सूत्रधार होते हुए भी कांग्रेस ने पिछले एक दशक में गवर्नेंस बदलने का कोई जोखिम नहीं लिया इसलिए शुरुआती सफलताओं के बाद आर्थिक सुधार दागी होते चले गए. मोदी जब मिनिमम गवर्नमेंट की बात कर रहे थे तो एहसास हुआ कि शायद उन्होंने अपेक्षाएं समझ ली हैं, क्योंकि मिनिमम गवर्नमेंट में ब्यूरोक्रेसी छांटने, हर तरह की पारदर्शिता लाने, प्रशासनिक सुधार, जैसे वे सभी पहलू आते हैं जिन्होंने भारत में ग्रोथ को दागी किया है. इसके विपरीत मोदी सरकर एक नया स्कीमराज लेकर आ गई जो इसे मैक्सिमम गवर्नेंस जैसा बनाता है. 

जिन सुधारों का जिक्र हमने किया वे मोदी से न्यू्नतम तौर पर अपेक्षित थे. दरअसल, सरकार को तो इसके आगे जाकर बाजार में किस्म-किस्म के कार्टेल ताोड़ने , कॉर्पोरेट गवर्नेंस, राज्यों में निजीकरण, नए नियामकों का गठन और राजनैतिक दलों में पारदर्शिता जैसे कदम उठाने थे, जिनसे भारत में दूरगामी बदलावों की दिशा तय होनी है. 

सरकारी हलकों में इस तल्ख हकीकत को अब महसूस किया जा रहा है कि स्कीमों, ब्यूरोक्रेसी और संरक्षणवाद से लदी-फदी यह ऐसी गवर्नेंस है जो न तो निचले तबके को छू सकी है और न ही युवा और निवेशकों और उद्यमियों में कोई उत्साह पैदा कर पाई है. मेक इन इंडिया सम्मेलन में लोगों के जेहन में वे आंकड़े भी तैरेंगे जो गवर्नेंस के लिए पहली बड़ी चुनौती का सायरन बजा रहे हैं. आर्थिक परिदृश्य को चाहे खेती, उद्योग, विदेश व्यापार में बांटकर देखें या केंद्रीय, राज्यीय और अंतरराष्ट्रीय पक्षों में, यह पहला मौका है जब खेती, निर्यात, उद्योग, रोजगार आदि कई क्षेत्रों में लाल बत्तियां एक साथ जल उठी हैं और आर्थिक बहस को सुधारों की बजाए संकट प्रबंधन की तरफ मोडऩे वाली हैं. 

2014 के जनादेश के बाद लोगों ने नरेंद्र मोदी में मार्गरेट थैचर, रोनाल्ड रेगन और ली क्वान यू की झलक देखी थी जो साहस और संकल्प से अपने देशों की कायापलट के लिए जाने जाते हैं. मोदी को थैचर, रेगन होने से पहले अटल बिहारी वाजपेयी होना है जो सूझ, संकल्प और समावेश में मोदी सरकार के 18 महीनों पर भारी पड़ते हैं. अब बीजेपी की चुनौती किसी राज्य में सत्ता में पहुंचना हरगिज नहीं होनी चाहिए. सरकार को यह धारणा बनने से रोकना होगा कि नरेंद्र मोदी के रूप में भारत को वह सुधारक नहीं मिल पाया है जिसकी हमें तलाश थी. क्या 2016 का बजट इस धारणा को खारिज करने की शुरुआत करेगा? 
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