आखिरकार बोलने वाला घोड़ा शहर में आया कैसे? यहां तांगे तो चलते नहीं कि एक अदद रोजगार की तलाश में दूर-दूर से घोड़े चले आए। फिर यह तो बोलने वाला घोड़ा था, कोई साधारण नहीं। किसी ने इससे फेसबुक पर दोस्ती करके इसे फंसाया है या ये खुद ही किसी घोड़ी के लिए चलकर आ गया? हो तो यह भी सकता है कि इसके पीछे किसी दुश्मन देश का हाथ हो। पाकिस्तान अब तक आतंकवादियों को सिखा-पढ़ा कर हमारे देश में भेजता रहा है। कहीं इस बार उसने घोड़े को तो अपना मोहरा नहीं बना लिया?
घोड़े को बोलना किसने सिखाया? क्या घोड़ों को बोलना सिखाने का भी कोई इंस्टीट्यूट है दुनिया में? गधों, कुत्तों, सियारों, कौओं और उल्लूओं को तो बोलना सिखाने की जरूरत नहीं पड़ती। वे तो बोलते ही रहते हैं। लोकतंत्र ने कई रंगे सियारों को इसीलिए तीसमार खां मान लिया कि वो बहुत बोलते हैं, लेकिन यहां तो खबर बोलने वाले घोड़े की थी और बोलने वाले घोड़े का पाया जाना अपने ढंग का पहला उदाहरण था। घोड़े ने बोलना अपनी इच्छा से सीखा या उस पर ऐसा करने के लिए उसके मां-बाप ने दबाव डाला? आखिर घोड़ा बोलना सीखकर क्या करेगा? कहीं ऐसा तो नहीं कि वो कुछ कवियों की कविताएं रट ले और फिर उन्हें कवि सम्मेलनों में बोलने लगे।
घोड़ा शान के साथ सड़क के बीच में बैठा था। भीड़ ने सारे सवाल उस पर एक साथ दाग दिए। घोड़ा कुछ नहीं बोला। धीरे-धीरे भीड़ छंट गई। तभी हवाओं में एक स्वर गूंजा – ”बुरा न मानो होली है। लोगों ने मुड़कर देखा। इस बार घोड़ा मुस्कुरा रहा था।
– अतुल कनक, व्यंग्यकार